मैं ठीक हूँ। मुझे अभी कोई दिक्कत नहीं है। उपरवाले की दया है।
अभी कुछ दिनों पहले संयोगवश नामचीन भद्रजनों के साथ बैठना हुआ। बैठना क्या हुआ? शेर हमेशा अपनी पूँछ में बंदर की पूँछ बांधकर चलता है। ऐसे ही किसी शेर ने अपनी पूँछ में मेरी पूँछ बांध रखी थी...। सो घसीटता हुआ पहुँचा था। बातें उन्होंने अपने घर-परिवार से प्रारंभ की थी, फिर राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय मसलों पर आ गए। सभा समाप्ति के ठीक बाद उन्हें कुछ याद आया कि...। अरे... इतनी बातें हो चुकी है। अपने खुद के हाल-चाल तो पूछे ही नहीं? फिर बात अपनी-अपनी सेहत पर आ गई। मैं ध्यान से सुनता रहा।
किसी का बीपी हाई... किसी का लो... किसी कि शुगर बढ़ी हुई... किसी कि घटी हुई... किसी का दिल नाजुक... किसी की धड़कन...। इसी बीच किसी सज्जन को लगा कि, नितांत नए बंदर के सामने इतना कुछ कह दिया... पहिए सभी ने बारी-बारी से अपनी गलतियाँ सुधारी... वेल... ट्रीटमेंट चलता है... अंडर कंट्रोल्ड। फिर सुबह की सैर के फायदे गिनाने लगे। उनकी बातों से इतना समझ किसरे मर्जों की एक दवा है, अलसुबह की सैर। इससे बढ़कर कोई अचूक इलाज नहीं... इससे अच्छा कोई रामबाण नहीं।
शाम को घर लौटा। बच्चों से बतियाता रहा... सब ठीक रहा। लेकिन उन भद्रजनों का वार्तालाप मेरे अवचेतन मन में समुद्र की लहरों की भाँति उठता रहा... फिर समुद्र में समता रहा। फिर किसी रात नींद उचट गई। मुझे लगा। वो मेरे घर में मौजूद है। मैं उनको बराबर सुन रहा हूँ। उस रात मुझे लगा कि आखिर मैं भी एक इनसान ही हूँ। मेरी सोच अपने गधेपन अपने बैलपन से जरा ऊपर उठी। विचार आया। बीमारियाँ इनसानों को ही आती हैं जानवरों को नहीं। उस दिन मैंने अपना खोया हुआ इनसानपन पाया। सोचा क्या हर्ज है सुबह की सैर की? फायदे ही फायदे होना हैं, नुकसान का तो सवाल ही नहीं।
अगले दिन मैं भी निकल पड़ा सुबह की सैर को। भद्रजनों। गुणीजनों। ज्ञानीजनों की तरह।
अभी दो-चार दिनों से देख रहा हूँ, जहाँ गली का अंत होता हैं, इधर की कॉलोनी की सीमा समाप्त होती हैं, उधर की कॉलोनी की सीमा प्रारंभ होती हैं, उस गली के मोड़ पर आठ-दस कुत्ते आपस में भौंकते नजर आते हैं, मैं दूर हटते हुए निकल जाता हूँ। लौटता हूँ तो गली साफ दिखाई देती है। सुनसान दिखाई देती है।
एक दिन थोड़ा देरी से उठा था। थोड़ी देरी से रवाना हुआ था। गली के मोड़ पर देखा कि, वही आठ-दस कुत्ते दो गुटों में बँटे एक-दूसरे पर भौंक रहे हैं। मामला गरमाता कि इससे पहले एक बूढ़ा गबरैला-झबरैला कुत्ता आ गया बीचों-बीच। दुम दबाकर इधर के कुत्ते इधर भागे, उधर के कुत्ते उधर भागे। बूढ़ा कुत्ता थोड़ी देर खड़ा रहा, आस-पास सूँघता रहा, फिर लौट गया।
अलसुबह की सैर से ज्यादा यह दृश्य देखना मेरे लिए महत्वपूर्ण हो गया था। निकलता हूँ तो दोनों ओर के कुत्ते खड़े रहते हैं, आपस में गुर्राते रहते हैं, लौटता हूँ तो दोनों ओर कुछ नजर नहीं आता हैं, सिवाय उस उस बूढ़े गबरैले-झबरैले कुत्ते के। मुझे लगता है इस बूढ़े कुत्ते के तेज के सामने दोनों ओर के कुत्ते निस्तेज दिखाते हैं। जिज्ञासा बढ़ी।
इधर-उधर की खोज-खबर के बाद मैंने जाना कि यह गबरैला-झबरैला कुत्ता तब से इधर है, जब से ये कॉलोनियाँ बनी है। अपने जमाने में वह बूढ़ा कुत्ता कभी दादा रहा था। जिसके नाम से शहर काँपता था। झपट लेना। नोंच लेना। उसकी खूबी थी। इसी खूबी ने उसे पहचान दिलायी। उसके पैने दाँत और खूँखार गुर्राहट के सामने अच्छे-अच्छों की पतलून गीली हो जाती थी।
पर जैसा कि दिन बदलते हैं। सूरज ढलता है, न अब वह दाँत रहे, न गुर्राहट। बस... रह गया तो केवल गबरैलापन-झबरैलापन। सुनकर अभिभूत हुआ। अरे... ये तो... मन ही मन कई उपमाओं (यदि उन उपमाओं का जिक्र कर दूँ तो कई उपमाधारी मुझे खदेड़ दे) से अलंकृत किया।
अगली सुबह गली के मोड़ पर ''दादा'' कहकर प्रणाम किया, और चल पड़ा। थोड़े दिनों में एक-दूसरे के चेहरे-मोहरों को पहचानने लगे।
किसी सुबह। वही गली का मोड़। इधर की गली के चार-पाँच कुत्ते... उधर की गली के चार-पाँच कुत्ते... एक दूसरे पर खूँखार तरीके से भोंक रहे हैं। इतने में वह गबरैला-झबरैला बूढ़ा कुत्ता आ गया। सब अपनी-अपनी दुम दबाकर चलते बने। इधर के कुत्ते इधर... उधर के कुत्ते उधर। मैं निकल रहा था, गुड मॉर्निंग कहा, फिर पूछा, ''दादा ये कुत्ते कौन हैं, जो रोज सुबह यहीं आकर एक-दूसरे पर भौंकते रहते हैं, और आपको देखते ही दुम दबाकर भाग जाते हैं?"
गबरैला-झबरैला कुत्ता जैसे अनसुना कर गया। और बिजली के खंभे पर एक टाँग ऊँची करके...
पश्चात मैंने कहा, ''अपना ही समझो। बताओ दादा... क्या बात है?"
''अपना?'' वितृष्ण भाव से मेरी ओर देखा फिर एक गोल चक्कर लगते हुए रफूचक्कर हो गया।
अगले दिन वही गली, वही मोड़, वही कुत्ते, वही गबरैला-झबरैला कुत्ता और मेरा वही सवाल।
"मैं यह कैसे मान लूँ कि तुम अपने हो?"
इतने में पास से एक स्कूटी गुजरी, वह उसके पीछे दौड़ा, और गायब हो गया।
मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि मैं अपने आप को कैसे उसका साबित करूँ? इंटरनेट पर दिन भर खोजा, गूगल पर जब भी टाइप करता, कुत्तों की प्रजातियाँ, उनकी नस्लें और उनके चित्रों के अलावा कुत्तेपन पर कहीं कुछ नहीं मिला।
बच्चों से पूछा, ''चलो, कुत्तों पर कोई कविता सुनाओ?''
बच्चे साफ मना कर गए कि उन्होंने कुत्तों पर कोई कविता नहीं सुनी है। फिर मैंने अपने पूछने का पैतरा बदला, ''अच्छा बेटा... कुत्ते के जन्मजात गुण बताओ।''
इस बार वे झट-पट बोल पड़े, ''कुत्ता भौंकता है। कुत्ता काटता है...। ''
मैं बीच में ही प्रमुदित होकर बोल उठा, ''थैंक्स बेटा। ''
अगली सुबह वही गली, वही गली का मोड़, वही कुत्ते, वही गबरैला-झबरैला कुत्ता।
मैं अपने निकट से स्कूल के लिए गुजरते बच्चे पर जोर से भौंका, कुत्तेपन का पहला गुण। इतने में एक स्कूटी गुजरी, गबरैला-झबरैला कुत्ता मुँह फेरकर उसके पीछे दौड़ पड़ा।
अगली सुबह वही गली, वही गली का मोड़, वही कुत्ते, वही गबरैला-झबरैला कुत्ता।
मैं अपने निकट से स्कूल के लिए गुजरते बच्चे पर जोर से भौंका, और झपटने को दौड़ा। कुत्तेपन का दूसरा गुण। इतने में एक स्कूटी गुजरी, गबरैला-झबरैला कुत्ता मुँह बिदकाकर उसके पीछे दौड़ पड़ा।
मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर क्या कमी रह गई है मुझमें? पूरा कुत्ता बनाने में क्या कसर बाकी रह गई है? यह जानने के लिए मैंने अपने साथ मॉर्निंग वॉक करते नायक जी से पूछा, ''यार। ये कुत्तों की खासियत क्या है? जिससे कि ये एकदम अलग होकर जाने-पहचाने जाते हैं?''
उनसे मैंने उस दिन जाना कि कुत्तों का खास गुण कि... ये कुत्ते कहीं भी एक टाँग ऊँची करके...। कहीं भी बुतों पर... दीवारों पर... यही तो इनका खास गुण हैं।
यानि ये सब मुझे करना होगा? दरअसल फटे में टाँग डालने कि संस्कृति है अपनी। मैं चाह रहा था कि मसाला समझ में आ जाए तो उसको हल करना आसान होगा। काम से काम रोज तो इस अप्रिय स्थिति का सामना न करना पड़े। बेकार के ये लड़ाई-झगड़े खत्म हो जाए। सब शांति से रहे। सब चैन से रहे... भाई-चारा बना रहे।
उस दिन गबरैले-झबरैले कुत्ते ने दूर से ही सूँघकर जान लिया था कि मैं कुत्ते के जन्मजात गुणों को जान गया हूँ। उस दिन मेरी ओर मुखातिब होकर बोला, ''मुझे बेवकूफ समझते हो? इतनी आसानी से क्या कुत्ता बना जा सकता है? इसके लिए कठिन इम्तिहान देने पड़ते है।" कुछ पल रुककर आसन्न वातावरण को सूँघा, फिर अपनी बात जारी राखी, ''मार दो... काट दो... नोंच लो... इससे किसी का दिल दहलाए - पिघलने वाला नहीं, जब तक कि तुम उनकी भावनाओं पर चोट नहीं करते? ...इस खून-खराबे। इस शोर-शराबे का कोई मतलब नहीं? अभी तुम बच्चे हो बेटा...। अभी तुम्हें बहुत कुछ सीखना है।" इसी बीच एक स्कूटी हमारे बीच से गुजरी, और हमेश की तरह वह गबरैले-झबरैले कुत्ता उसके पीछे दौड़ पड़ा।
मुझे नायक जी द्वारा बताया गया कुत्तों का खास गुण याद आया, ''ये कुत्ते कहीं भी... कभी भी। एक टाँग ऊँची करके। कहीं भी। दीवारों पर। बुतों पर...।"
अटर...पटर...। खटर...पटर...। अबड़...गबड़...। छप्पाक...थप्पाक...। ''अश्वत्थामा हतो गतः'' के थी बाद जोर से नगाड़ों का स्वर...
अगली सुबह उस गबरैले-झबरैले कुत्ते ने जो बताया, शब्दशः बता रहा हूँ गबरैला-झबरैला कुत्ता उवाच, ''इधर कुछ दिनों पहले एक परिवार किराए पर रहने आया है। उनकी बिटिया रोज सुबह स्कूटी से इधर से ट्यूशन के लिए निकलती है। इधर के कुत्तों का कहना है कि यह हमारे अधिकार क्षेत्रांतर्गत है। उधर के कुत्तों का कहना है कि ये किसी की बपौती नहीं है। हम किसी क्षेत्रवाद... भाषावाद... जातिवाद... प्रांतवाद। आदि किसी वाद को नहीं मानते। सारा भारत हमारा है। अनेकता में एकता... यही भारत की विशेषता। लंबी रस्साकशी के बाद उनमे निर्णय हुआ कि ''जिधर हो दम... वो दिखाए अपना दमखम...''
कुछ पल रुककर अपनी बात जारी रखी। ''मैं देख लेता हूँ कि... बच्ची घर से निकल गई है... मैं आ जाता हूँ उसके पीछे-पीछे... उस सड़क तक करता हूँ पीछा। जहाँ उसकी सहेलियाँ खड़ी रहकर उसका इंतजार करती है... फिर वो एक साथ होकर उधर निकल पड़ती है... मैं इधर लौट आता हूँ...।''
मेरे समूचे शरीर को लकवा मार गया है। पता नहीं लरजते हुए मेरे मुँह से ये क्या निकल गया, ''अब से ये जिम्मेदारी मेरी।"
बूढ़ा गबरैला-झबरैला कुत्ता तुरंत बोल पड़ा, ''नहीं। मुझे इनसानों पर भरोसा नहीं है। ''
इसी बीच उसने जैसे कुछ सूँघने की कोशिश की थी। उसके कान खड़े हो गए, उसकी दुम तन गई, उसी समय एक स्कूटी मेरे करीब से गुजरी, एक भीनीं-सी खुशबू का झोंका मेरे दिलो-दिमाग में उतर गया। मैंने पहली बार उस कमसिन निर्दोष... निष्पाप मसूसियत को महसूस किया था। वह स्कूटी की ओर लपकते हुए बोला था। ''कुत्तों के बारे में एक और बात मशहूर है लगता है जो तुमने जानी नहीं है?''
इस बार मैंने अपनी पूरी ताकत को इकठ्ठा करके रिरियाती आवाज में पूछा था, ''वो क्या है?''
मेरे कानों में जो शब्द पड़े थे, जैसे खौलते हुए तेल में कुछ डाला जाता है, वो थे ,''वफादारी।"